हमें नायाफ़्त लम्हों से मफ़र होता न घर लुटता कि पहली बर्फ़-बारी में कहाँ ज़ाद-ए-सफ़र लुटता कभी वो बर-सर-ए-पैकार रहता आप अपने से कभी वो दूसरों से दू-ब-दू ज़ेर-ओ-ज़बर लुटता तुम्हें इस बात का एहसास तो होता हज़ीमत पर सितारे टूट कर गिरते अगर ख़्वाब-ए-सहर लुटता ये दीवार-ओ-दर-ओ-मेहराब-ओ-मिम्बर हेच हैं फिर भी हमा-आलम को लुटना है मगर तू बाम पर लुटता तिरी ऊँचाइयों ने क़द को छोटा कर दिया सब के तुझे लुटना था वुसअ'त में अगर बे-बाल-ओ-पर लुटता कोई आवाज़ पीछे की तरफ़ मुड़ने को कहती है मिरे बाज़ू क़लम होते मिरे क़दमों पे सर लुटता तिरे दुख की गवाही चाँद तारे भी नहीं देते कि दिन भर यूँ पड़ा सोता न ऐसे रात भर लुटता ग़ज़ल लुत्फ़-ओ-असर पा कर ब-तर्ज़-ए-'मीर' रक़्साँ है चलो बरपा करें महफ़िल चलो देखें शरर लुटता 'ख़ुमार' ऐसे सफ़र में आँख छिन जाती तो अच्छा था कहीं शाख़ों का सौदा और कहीं देखा शजर लुटता