हमीं थे ऐसे सर-फिरे हमीं थे ऐसे मनचले कि तेरे ग़म की रात में चराग़ की तरह जले मिले कोई तो फिर मज़े न ज़िंदगी के पूछिए कटे जो रात दैर में तो मय-कदे में दिन ढले खिली हुई हर इक कली महक रही है शाख़ पर तो कुछ उदास फूल भी पड़े हैं शाख़ के तले इस अंजुमन को क्या हुआ न रौशनी न ज़िंदगी चराग़ ओ गुल जले बुझे दिमाग़ ओ दिल मिले दले ये बात तल्ख़ है मगर ये बात गुफ़्तनी भी है कि ज़ाहिदान-ए-ख़ुद-निगर से रिंद-ए-बा-सफ़ा भले ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब पर सितारे मुस्कुराए हैं कि इक दिया बुझा तो क्या हज़ार-हा दिए जले 'शमीम' मंज़िल-ए-तलब क़दम को आ के चूम ले अगर क़दम को जोड़ कर तमाम कारवाँ चले