सरहद-ए-फ़ना तक भी तीरगी नहीं आई यूँ भी रास अँधेरों की ज़िंदगी नहीं आई तुम शराब पी कर भी होश-मंद रहते हो जाने क्यूँ मुझे ऐसी मय-कशी नहीं आई जिस की भी तबाही हो कुछ असर तो रखती है आज मेरी हालत पर क्यूँ हँसी नहीं आई और भी दरख़्शाँ हो ऐ मिरे नए सूरज अब भी मेरे आँगन में रौशनी नहीं आई रहरवान-ए-दानिश की ज़िंदगी बताती है काम किन मनाज़िल में आगही नहीं आई लोग चार ही दिन में बन गए 'सलाम' ऐ दिल और ख़ुद मुझे अब तक शाएरी नहीं आई