हमें याद आवती हैं बातें उस गुल-रू की रह रह के नहीं हैं बाग़ में मुश्ताक़ हम बुलबुल के चह चह के करेगा क़त्ल किस को देखिए वो तेग़-ज़न यारो चला आता है अपने हाथ में क़ब्ज़े को गह गह के नशा ऐसा हुआ उस की निगह का जो नहीं थमते हमारे अश्क जाते हैं चले चश्मों से बह बह के हम उस का मुस्कुराना याद कर रो रो के हँसते हैं नहीं मुश्ताक़ अब बाज़ार के ख़ंदों के क़ह-क़ह के सुख़न में फ़ख़्र अपना बिन किए रहता नहीं 'नाजी' उसे समझाए 'हातिम' किस तरह अशआर कह कह के