हमीं हैं दर-हक़ीक़त अपने क़ारी हमीं तक बात पहुँचेगी हमारी कहीं पर सर छुपाना ही पड़ेगा अगर होती रहेगी संग-बारी कभी फ़ुर्सत मिले हम को तो सोचें कोई मंज़र है कितना एतिबारी सभी को धूप में तपना पड़ेगा जहाँ सूरज की पहुँची है सवारी मुक़द्दर हो चुकी ख़िर्दा-फ़रोशी यूँही गिनते रहो बस रेज़गारी मुझे हर आन खाए जा रहा है मिरे एहसास का कुत्ता शिकारी हर इक दीवार गिरती देखता हूँ बहुत महँगी पड़ी है होशियारी