जब्र बे-चारगी के मारों में हम हैं ख़ुद अपने सोगवारों में आइने अक्स को तरसते हैं सूरतों के तिलिस्म-ज़ारों में लग़्ज़िश-ए-पा-ए-बे-ज़बानी तक रौशनी कम है रहगुज़ारों में लोग अपनी तलाश की ख़ातिर छुप गए जुस्तुजू के ग़ारों में किस को तूल-ए-कलाम की फ़ुर्सत बात करते हैं इस्तिआरों में मौत का इंतिज़ार करते हैं मुजरिमों की तरह क़तारों में