हम-सफ़र था ही नहीं रख़्त-ए-सफ़र था ही नहीं कुछ गँवाने का मुझे ख़ौफ़-ओ-ख़तर था ही नहीं मुझ को हर शाम जहाँ ले के तवक़्क़ो आई दर-ओ-दीवार तो मौजूद थे घर था ही नहीं उँगलियाँ ज़ख़्मी हुईं तब मुझे एहसास हुआ दस्तकें दी थीं जहाँ पर वहाँ दर था ही नहीं मुझ से ही पूछा किए मेरे बिखरने का सबब अहल-ए-दानिश में कोई अहल-ए-नज़र था ही नहीं धूल उड़ाई जहाँ ख़्वाबों में मुसलसल मैं ने किसी नक़्शे में कहीं पर वो नगर था ही नहीं किस पे इल्ज़ाम रखें किस पे लगाएँ तोहमत मेरी मिट्टी में सिमटने का हुनर था ही नहीं याद इक शख़्स था इक नाम ही अज़बर 'तारा' सिवा उस के कोई ता-हद्द-ए-नज़र था ही नहीं