हाँ क्या कहा कि ग़ैर से उल्फ़त भी कुछ नहीं ये सच अगर है फिर मुझे हुज्जत भी कुछ नहीं शुर्ब-ए-मुदाम की मुझे आदत भी कुछ नहीं और कोई यूँ पिलाए तो नफ़रत भी कुछ नहीं फिर तुम से आ के मिलते भी हैं रोज़ रोज़ वो ग़ैरों से तुम को रब्त-ओ-मोहब्बत भी कुछ नहीं होना जो था वो हो चुका जाती थी जाँ गई आने की तेरे अब तो ज़रूरत भी कुछ नहीं देखा जिसे हसीन बस उस पर फिसल पड़े सच कहते हो कि ऐसी तबीअ'त भी कुछ नहीं नासेह न बक फ़ुज़ूल चला जा न मुँह खुला तू सुन ले मुझ से तेरी हक़ीक़त भी कुछ नहीं हर रोज़ छेड़ छेड़ के कुछ तज़्किरा भी है और दुख़्त-ए-रज़ पे शैख़ की निय्यत भी कुछ नहीं नाले को सिर्फ़ मुँह से निकलने की देर थी देखा तो आसमाँ की हक़ीक़त भी कुछ नहीं तेरी वजह से पर्दा-ए-माशूक़ फ़ाश हो ऐ शोहरत-ए-जुनूँ तुझे ग़ैरत भी कुछ नहीं इतना तो है कि तुझ से वो कुछ ख़ुश नहीं 'फहीम' यूँ तेरे नाम से उन्हें नफ़रत भी कुछ नहीं