हंगामा-ख़ेज़ दावा-ए-मंसूर हो गया लब हम-नवा-ए-ख़ातिर-ए-मग़रूर हो गया बज़्म-ए-ख़याल-ए-यार में है महव-ए-आरज़ू मुझ से मिरा ख़याल बहुत दूर हो गया मिटना था कब तराविश-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर का रंग हाँ रिसते रिसते ज़ख़्म से नासूर हो गया था जल्वा-गाह-ए-यार मिरा दामन-ए-निगाह जिस ज़र्रे पर निगाह पड़ी तूर हो गया बस ऐ सुकून-ए-यास ज़ियादा सितम न कर वो इज़्तिराब-ए-शौक़ तो काफ़ूर हो गया नाकामी-ए-अज़ल की सितम-रानियाँ न पूछ मैं अपने इख़्तियार से मजबूर हो गया उफ़ इज़्तिराब-ए-शौक़ की हसरत-फ़रोशियाँ हुस्न-ए-हया-परस्त भी मजबूर हो गया मैं और ये सरनविश्त-ए-मलामत की जा नहीं मैं उस के इंतिख़ाब से मजबूर हो गया हंगामा-हा-ए-ग़लग़ला-ए-मा-ओ-मन न पूछ 'बेख़ुद' भी अपने अह्द का मंसूर हो गया