हँसने में रोने की आदत कभी ऐसी तो न थी तेरी शोख़ी ग़म-ए-फ़ुर्क़त कभी ऐसी तो न थी अश्क आ जाएँ तो पलकों पे बिठाऊंगा उन्हें क़तरा-ए-ख़ूँ तिरी इज़्ज़त कभी ऐसी तो न थी किश्त-ए-ग़म और भी लहराने लगी हँसने लगी चश्म-ए-नम तेरी शरारत कभी ऐसी तो न थी कितने ग़म भूल गया शुक्रिया तेरा ग़म-ए-यार यूँ मुझे तेरी ज़रूरत कभी ऐसी तो न थी वो मुजस्सम भी जो आ जाए तो देखूँ न उसे मेरी उस बुत की इबादत कभी ऐसी तो न थी देर तक बैठे प कुछ तू ने न मैं ने ही कहा जैसी तुझ से है रिफ़ाक़त कभी ऐसी तो न थी एक इक शे'र से टपके हैं लहू के क़तरे मेरी दुश्मन ये तबीअ'त कभी ऐसी तो न थी