हँसते हो रोते देख कर ग़म से छेड़ रखी है तुम ने क्या हम से मुँद गई आँख है अँधेरा पाक रौशनी है सो याँ मिरे दम से तुम जो दिल-ख़्वाह ख़ल्क़ हो हम को दुश्मनी है तमाम आलम से दरहमी आ गई मिज़ाजों में आख़िर उन गेसूवान-ए-दिरहम से सब ने जाना कहीं ये आशिक़ है बह गए अश्क दीदा-ए-नम से मुफ़्त यूँ हाथ से न खो हम को कहीं पैदा भी होते हैं हम से अक्सर आलात-ए-जौर उस से हुए आफ़तें आईं उस के मुक़द्दम से देख वे पलकें बर्छियाँ चलियाँ तेग़ निकली उस अबरू-ए-ख़म से कोई बेगाना गर नहीं मौजूद मुँह छुपाना ये क्या है फिर हम से वज्ह पर्दे की पोछिए बारे मलिए उस के कसो जो महरम से दरपय ख़ून 'मीर' ही न रहो हो भी जाता है जुर्म आदम से