उस मंज़र-ए-सादा में कई जाल बंधे थे जब उस का गरेबान खुला बाल बंधे थे ऐ ज़ूद-फ़रामोश कहाँ तू है कि तुझ से मेरे तो शब-ओ-रोज़ मह-ओ-साल बंधे थे वो रश्क-ए-ग़ज़ालाँ था मगर दाम में उस के हम जैसे कई सैद-ए-ज़बूँ-हाल बंधे थे देखे कोई नासेह की जो हालत है कि हम तो उस बुत की मोहब्बत में बहर-हाल बंधे थे सय्याद को फिर भी मिरी परवाज़ का डर था मैं गरचे क़फ़स में था पर-ओ-बाल बंधे थे यूँ दिल तह-ओ-बाला कभी होते नहीं देखे इक शख़्स के पाँव से तो भौंचाल बंधे थे वक़्त आया तो मैं मक़्तल-ए-जाँ में था अकेला यारों की गिरह में फ़क़त अक़वाल बंधे थे