हक़ तिरे ग़म का कुछ इस तरह अदा हो जाए आह भी आए लबों पर तो दुआ हो जाए देख कर जिस को नक़ाबों में भी ख़ीरा है नज़र वो अगर सामने आ जाए तो क्या हो जाए मुझ को डर है कि तिरी हश्र-ख़िरामी के तुफ़ैल वक़्त से पहले क़यामत न बपा हो जाए अपने चेहरे पे निगाहें नहीं उठतीं उस की मैं जो आईना दिखाऊँ तो ख़फ़ा हो जाए आ के बस जाए जो उस बुत की मोहब्बत दिल में दिल मिरा क़िबला-ए-अरबाब-ए-वफ़ा हो जाए मक़्सद-ए-इश्क़ फ़रामोश न हो जाए कहीं आप का लुत्फ़ अगर हद से सिवा हो जाए हम को मालूम है फ़िरऔन का अंजाम 'मजीद' कोई चाहे तो ब-सद-शौक़ ख़ुदा हो जाए