हक़ ये है क़ल्ब में मुर्शिद के जो घर रखते हैं यार-ए-हरजाई को अपना वही कर रखते हैं नज़्र हम कर चुके दोनों तुम्हें ऐ हज़रत-ए-इश्क़ दोष पर सर को न पहलू में जिगर रखते हैं क़तरा कब रक्खे ख़बर जबकि फ़ना बहर में है बे-ख़बर हक़ से हैं जो उस की ख़बर रखते हैं पी चुके जाम-ए-बक़ा हाथ से जो साक़ी के कू-ए-जानाँ में वही अपना गुज़र रखते हैं ले उड़ी बाद-ए-फ़ना जिन के ग़ुबार-ए-तन को वो निशाँ रखते हैं अपना न असर रखते हैं है यक़ीं जिन को कि है एक 'असद' फिर तो वो ज़ेर रखते हैं किसी को न ज़बर रखते हैं