हक़ीर ज़र्रा भी कोह-ए-गिराँ दिखाई दे कभी कभी ये ज़मीं आसमाँ दिखाई दे जो मेरी आँख से आँसू रवाँ दिखाई दे तो डूबता हुआ सारा जहाँ दिखाई दे हर एक शख़्स यहाँ बद-गुमाँ दिखाई दे मिरा ख़ुलूस मुझे राएगाँ दिखाई दे ज़मीं पे ख़ून की सरगोशियाँ उभरती हैं मकीं तो कोई नहीं है मकाँ दिखाई दे सुलगती रेत पे चलते रहो कहीं न कहीं अजब नहीं कि कोई साएबाँ दिखाई दे मिरे ख़ुलूस की गर्मी भी काम आ न सकी दबीज़ बर्फ़ में चेहरा कहाँ दिखाई दे जो बहर-ए-वहम में डूबे हुए से रहते हैं उन्हें यक़ीं का जज़ीरा कहाँ दिखाई दे 'नसीम' अपनी कहानी किसे सुनाओगे कोई न शहर में अब राज़दाँ दिखाई दे