हर आइने में बदन अपना बे-लिबास हुआ मैं अपने ज़ख़्म दिखा कर बहुत उदास हुआ जो रंग भर दो उसी रंग में नज़र आए ये ज़िंदगी न हुई काँच का गिलास हुआ मैं कोहसार पे बहता हुआ वो झरना हूँ जो आज तक न किसी के लबों की प्यास हुआ क़रीब हम ही न जब हो सके तो क्या हासिल मकान दोनों का हर-चंद पास पास हुआ कुछ इस अदा से मिला आज मुझ से वो 'शाहिद' कि मुझ को ख़ुद पे किसी और का क़यास हुआ