तिरे अबरू पे बल आया तो होता ज़रा ग़ैरों को धमकाया तो होता बजाए फ़र्श मैं आँखें बिछाता तू अपने वा'दे पर आया तो होता समझते फ़र्श पर हम चादर-ए-गुल तिरा ऐ रश्क-ए-गुल साया तो होता शिकायत आएगी ऐ जज़्ब-ए-उल्फ़त जनाज़े पर उसे लाया तो होता किया था गर फ़लक तू ने सियह-बख़्त तो मैं उस माह का साया तो होता न होता दर्द-ए-सर फिर तुम को 'आजिज़' सर उस के दर पे टकराया तो होता