हर बात जो न होना थी ऐसी हुई कि बस कुछ और चाहिए तुझे ऐ ज़िंदगी कि बस जो दिन नहीं गुज़रना थे वो भी गुज़र गए दुनिया है हम हैं और है वो बेबसी कि बस जिन पर निसार नक़्द-ए-सुकूँ नक़्द-ए-जाँ किया उन से मिले तो ऐसी नदामत हुई कि बस मैं जिस को देखता था उचटती निगाह से उन की निगाह मुझ पे कुछ ऐसी पड़ी कि बस मंज़िल समझ के दार पे मैं तो न रुक सका ख़ुद मुझ से मेरी ज़िंदगी कहती रही कि बस वो मसअले हयात के जो मसअले नहीं उन मसअलों से उलझा है यूँ आदमी कि बस पहुँचा जहाँ भी लोग ये कहते हुए मिले तहज़ीब अपने शहर की ऐसी मिटी कि बस दुनिया ग़रीब जान के हँसती थी 'मीर' पर 'इक़बाल' मुझ पे ऐसे ये दुनिया हँसी कि बस