हर बार हमें देते हैं पैग़ाम-ए-मोहब्बत तुम भी तो बढ़ाओ कभी इक़दाम-ए-मोहब्बत हम ही से ज़माने में मोहब्बत का चलन है हम लोग नहीं सोचते अंजाम-ए-मोहब्बत दुनिया की किसी मय में उसे लुत्फ़ न आया होंटों से लगा जिस के कभी जाम-ए-मोहब्बत हर सुब्ह सुहानी है मोहब्बत के नशे में पुर-लुत्फ़ हुआ करती है हर शाम-ए-मोहब्बत हर शख़्स की आँखों से हवस झाँक रही है दुनिया से न मिट जाए कहीं नाम-ए-मोहब्बत तुम बन के जो आए हो मोहब्बत के तरफ़-दार देखा नहीं है क्या कभी आलाम-ए-मोहब्बत वो लोग मोहब्बत का मज़ा ख़ाक समझते चूमा ही जिन्हों ने न कभी बाम-ए-मोहब्बत