हर चंद कि हम मूरिद-ए-पुर-क़हर-ओ-ग़ज़ब हैं बातिल के परस्तार न पहले थे न अब हैं वो लोग कहाँ अब जिन्हें कहते थे मुजाहिद इस दौर-ए-तरक़्क़ी में सब आराम-तलब हैं फ़ुर्सत जो मिले ग़म से तो मिस्मार ही कर दूँ जितने भी सर-ए-राह ये ऐवान-ए-तरब हैं क्या जानिए किस नश्शा-ए-ग़फ़लत में हैं सरशार मदहोश नहीं हम मगर हुश्यार भी कब हैं रहबर हैं कि रहज़न हैं समझ में नहीं आता हमदर्द नहीं एक भी हमराह तो सब हैं ईमा-ए-नज़र हो तो दिल-ओ-जाँ भी तसद्दुक़ हम वो नहीं जो मुंतज़िर-ए-जुम्बिश-ए-लब हैं दिल डूबने लगता है तसव्वुर से भी जिन के ऐसे भी मक़ामात सर-ए-राह-ए-तलब हैं दिल चीर गई जिन की फ़ुग़ान-ए-शब-ए-तारीक अब रंग-ए-सहर देख के क्यों मुहर-ब-लब हैं 'राही' से मिले जब भी ये महसूस किया है उस शख़्स के जज़बात-ओ-ख़यालात अजब हैं