यूँ बुलाने से नींद कब आई जब भी आई है बे-तलब आई रो पड़े दिल दयार के बासी उन के घर में बहार जब आई मैं किसी बज़्म में अगर आया साथ मेरे तुम्हारी छब आई दिल ही धड़का न आँख ही फड़की क्यों तिरी याद बे-सबब आई चश्म-ए-तर तू बरस न सोच अभी भाड़ दश्त-ए-जुनूँ में कब आई याद का भी अजीब आलम है जब न आना उसे था जब आई उन से मिलने की जब भी बात छिड़ी हिस निगाहों में जाँ-ब-लब आई हिज्र की धूप ढलते-ढलते ढली वस्ल की शुब घड़ी न शब आई ख़ुश-नसीबी की रुत भी क्यों 'ईरज' मैं ने चाहा न था कि तब आई