हर चोट पर ज़माने की हम मुस्कुराए हैं लेकिन तिरे ख़याल में आँसू बहाए हैं हद को पहुँच गई है मिरी ना-मर्दीयाँ मंज़िल के पास आ के क़दम डगमगाए हैं ऐ ज़ुल्फ़-ए-काएनात तुझे क्या ख़बर कि हम किन पेच ओ ख़म से छुट के तिरे पास आए हैं ऐ जान-ए-काएनात तिरे इंतिज़ार में हम ने कई चराग़ जलाए बुझाए हैं जो चल पड़े थे अज़्म-ए-सफ़र ले के थक गए जो लड़खड़ा रहे थे वो मंज़िल पे आए हैं 'हैरत' निज़ाम-ए-कोहना की तारीकियों में भी हम ने निज़ाम-ए-ताज़ा के दीपक जलाए हैं