हर एक दर्द सँभाला है ज़िंदगानी में झलक रहा है बुढ़ापा तभी जवानी में मुझे तो धूप से भी इस क़दर न ख़ौफ़ आया मिला है ख़ौफ़ जो अब तेरी साएबानी में कभी पिया गया उस को कभी बहाया गया कोई भी फ़र्क़ न था ख़ून और पानी में उसे नज़र की भला कौन सी कहूँ मंज़िल दिखाई देने लगा ज़र्द रंग धानी में ज़बाँ-दराज़ तो ठहरे मगर यही सच था लुटा है शहर ये तेरी ही पासबानी में मिला न क़तरा-ए-आब-ए-बक़ा समुंदर से मिली है मौत हमें शहर-ए-जावेदानी में गँवा के उम्र जिसे हम सँभाल लाए थे गँवा दिया उसे इक बात की रवानी में रुकावटें हैं ये रस्ते की ऐ 'ख़िज़र' नादाँ जिन्हें तू मंज़िलें समझा है बे-धियानी में