हर इक को दूसरे से अदावत है आज-कल कोहराम ज़िंदगी की अलामत है आज-कल लब खोलना ही जुर्म-ए-बग़ावत है आज-कल जेलों में बंद शान-ए-ख़िताबत है आज-कल सर पे पहन के निकले हैं दस्तार सब मगर इज़्ज़त कहाँ किसी की सलामत है आज-कल अंदर की टूट फूट है बिखरा हुआ हूँ मैं मुझ को बहुत ही अपनी ज़रूरत है आज-कल अपनी ग़रज़ से मिलता है मिलता है जो कोई सच पूछिए तो किस को मोहब्बत है आज-कल हम ने फिर अपनी आस के खे़मे जला दिए दर-पेश हम को इक नई हिजरत है आज-कल महफ़िल भी उन की रास न आई हमें 'वकील' बे-कैफ़ सी अजीब तबीअ'त है आज-कल