हर एक को हर मर्तबा हासिल नहीं होता आईना सिकंदर के मुक़ाबिल नहीं होता बे-लुत्फ़ है वो काम मुसीबत नहीं जिस में बे-क़द्र है वो उक़्दा जो मुश्किल नहीं होता तुम वस्ल में दीवानगी-ए-शौक़ से डरना मैं कश्मकश-ए-नाज़ से बे-दिल नहीं होता किस काम का ऐ क़ैस तिरा चाक-ए-गरेबाँ लैला का अगर पर्दा-ए-महमिल नहीं होता मैं ख़िरमन-ए-उम्मीद हूँ तू बर्क़-ए-ग़ज़ब है तुझ से ब-जुज़ अफ़्सोस के हासिल नहीं होता क्या ज़ुल्म है बे-पर्दा उसे ग़ैर ने देखा क्यूँ पर्दा मिरी आँख का हाइल नहीं होता नाले से न क्यूँ दर्द-ए-जिगर और भी बढ़ता दशने से सिवा ज़ख़्म के हासिल नहीं होता हूँ मिस्ल-ए-हबाब और कहीं क़तरा हूँ कहीं मौज मैं ज़ौक़-ए-फ़ना से कभी ग़ाफ़िल नहीं होता कहते हैं मिरे ज़ख़्म ये हँस हँस के मज़ा में ऐसा नमकीं ख़ंदा-ए-क़ातिल नहीं होता हाँ ग़ैर भी क्या दा'वा-ए-उल्फ़त में है झूटा कहते हो किसी पर कोई माइल नहीं होता खोया तुम्हें उश्शाक़ की बे-हौसलगी ने महशर में तुम्हारा कोई साइल नहीं होता जादा पे चले जाते हैं जो रास्त क़दम हैं ये ख़िज़्र जुदा ता-सर-ए-मंज़िल नहीं होता अंदाज़ा-ए-हिम्मत से कोई शय नहीं बढ़ती या'नी ख़त-ए-साग़र ख़त-ए-साहिल नहीं होता हर ख़ाल-ए-सियह दाग़-ए-जिगर बन नहीं सकता हर क़तरा-ए-ख़ूनाब कभी दिल नहीं होता तुझ को ही मगर आग लगानी नहीं आती क्या तूर से अच्छा भी कोई दिल नहीं होता दुनिया से 'वफ़ा' सर्द यहाँ तक है मिरा दिल मैं सोज़-ए-जहन्नम का भी क़ाइल नहीं होता