काम आसाँ नज़र आया मुझे मुश्किल हो कर हासिल-ए-उम्र मिला हसरत-ए-हासिल हो कर दो जहाँ मुझ को मिले हैं तपिश-ए-दिल हो कर इक नज़र देख तो लूँ दीदा-ए-बिस्मिल हो कर किस पर आता है ये इल्ज़ाम ख़ुदा ख़ैर करे में तुम्हें भूल गया ग़ैर पे माइल हो कर कौन सी बात है आईने में जो मुझ में नहीं बैठ तो जाओ ज़रा मेरे मुक़ाबिल हो कर वहशत-ए-बे-कसी-ए-शौक़ लिए जाती है नक़्श-ए-पा आगे बढ़ा दूरी-ए-मंज़िल हो कर ख़्वाहिश-ए-मर्ग सर-ए-रिश्ता-ए-उम्मीद सही आख़िर उलझे न कहीं वो गिरह-ए-दिल हो कर पर्दा-पोशी भी मज़े दे गई अल्लाह अल्लाह सामने आई अजल ख़ंदा-ए-क़ातिल हो कर नश्शा-ए-ख़्वाब-ए-अदम सुर्मा-ए-बेदारी है आँखें खुल जाती हैं इस पर्दा में ग़ाफ़िल हो कर सफ़-ए-महशर है मिरा हल्का-ए-आग़ोश नहीं क्या बचे जाते हो अग़्यार में शामिल हो कर दिल में रह कर भी तमन्ना की ख़बर रखते नहीं क़ाफ़िले सैकड़ों गुज़रे पस-ए-महमिल हो कर मेरी नज़रों में है ख़ुर्शीद-ए-क़यामत की नुमूद बरसों पहलू में रहा आबला-ए-दिल हो कर आँखें फिर उठने लगीं शर्म का पर्दा बन कर लो वो फिर आते हैं रंग-ए-रुख़-ए-महफ़िल हो कर गिला-ए-तिश्नगी-ए-शौक़ है इक तूल-ए-अमल मिल गए ख़ाक में आख़िर लब-ए-साहिल हो कर तीरा-बख़्ती से मिला रोज़-ए-जज़ा को हिस्सा रह गया है रुख़-ए-अफ़्सोस पे इक तिल हो कर साफ़ आता है नज़र तुम हो मिटाने वाले क्या किया पर्दा-ए-तक़दीर ने हाइल हो कर अहल-ए-दुनिया की तरफ़ दस्त-ए-दुआ' क्यों उट्ठें भीक अग़्यार से इक दोस्त के साइल हो कर जल्वा उन का है कलीम उन के हैं ऐमन उन का तूर क्यों जलने लगा बीच में हाइल हो कर असर-ए-ग़म्ज़ा-ए-शीरीं दिल-ए-ख़ुसरव में सही रह गया सीना-ए-फ़रहाद अगर सिल हो कर ऐ 'वफ़ा' तालेअ'-ए-नाशाद को रश्क आता है हम रहे जाते हैं नुक़सान में कामिल हो कर