हर एक लम्हा-ए-मौजूद इंतिज़ार में था मैं अगले पल की तरह वक़्त के ग़ुबार में था हर इक उफ़ुक़ पे मुसलसल तुलू'अ होता हुआ मैं आफ़्ताब के मानिंद रहगुज़ार में था ख़ुद अपने आप में उलझा हुआ था मेरा वजूद मैं चाक चाक गरेबाँ के तार तार में था जो उस की ख़ुश-सुख़नी तक रसाई चाहती थी मिरा वजूद भी लफ़्ज़ों की इस क़तार में था बिल-आख़िर आ ही गई इख़्तिलाफ़ की साअत मैं जानता हूँ तू इस पल के इंतिज़ार में था