यूँ तो दिल हर कदाम रखता है अहल-ए-दिल होना काम रखता है कब वो तम-ए-सलाम रखता है मुझ सा लाखों ग़ुलाम रखता है इशरत-ए-दो-जहाँ है उस के साथ जो सुराही-ओ-जाम रखता है है वही ख़ास बज़्म-ए-दुनिया में जो मदारा-ए-आम रखता है दीन-ओ-दुनिया का जो नहीं पाबंद वो फ़राग़त तमाम रखता है बुत-परस्तों को कुइ कहे है ज़ुबूँ कुइ मुसलमाँ को नाम रखता है हर कोई अपनी फ़हम-ए-नाक़िस में पुख़्ता सौदा-ए-ख़ाम रखता है जो किसू को बुरा कहे न 'हुज़ूर' वही फ़हम-मंद नाम रखता है