हर इक मंज़िल हर इक साहिल हर इक तूफ़ाँ से टकराई मिरी वहशत ग़रज़ कुल आलम-ए-इम्काँ से टकराई यकायक रह गई दुनिया-ए-अरमाँ सर-निगूँ हो कर निगाह-ए-बे-कसाँ जब भी रुख़-ए-ताबाँ से टकराई हँसी आ ही गई उस दम मुझे जब्र-ए-मशिय्यत पर कभी जब तल्ख़ी-ए-ग़ुर्बत मिरे विज्दाँ से टकराई यकायक रह गई दुनिया-ए-अरमाँ सर-निगूँ हो कर निगाह-ए-बे-कसाँ जब भी रुख़-ए-ताबाँ से टकराई रहा कोताह-दामानी का शिकवा सर-ब-सर मुझ को तिरी नज़र-ए-करम जब वुसअ'त-ए-अरमाँ से टकराई तअज्जुब ही रहा ग़म-ख़्वारियों को सख़्त-जानी पर मिरी ईज़ा-पसंदी जब ग़म-ए-दरमाँ से टकराई हम उस दम ख़ैरियत पूछेंगे वाइज़ से कि जब कोई निगाह-ए-कुफ़्र-सामाँ ख़िरमन-ए-ईमाँ से टकराई रही 'साहिर' हमेशा बंदगी में शान-ए-यज़्दानी मैं वो बंदा हूँ जिस की बंदगी यज़्दाँ से टकराई