है अजीब कशमकश में ग़म-ए-आरज़ू का मारा न तो अर्ज़-ए-ग़म का यारा न कहे बग़ैर चारा कहें उस से हाल क्या जो न समझ सके इशारा ग़म-ए-इश्क़ को ये ज़िल्लत नहीं हश्र तक गवारा मैं नहीं हूँ मौज-ए-मुज़्तर जो हो बे-क़रार-ए-साहिल मैं ग़रीक़-ए-बहर-ए-ग़म हूँ मुझे ढूँड ले किनारा मुझे क्या मिटा सकेंगे ग़म-ए-हिज्र के ये तूफ़ाँ कि अभी है मेरे बस में तिरी याद का सहारा न कहीं का मुझ को रक्खा तिरी आरज़ू ने ज़ालिम मैं जहाँ भी जा के डूबा वहीं मिल गया किनारा मिरी सख़्त-जानी बर-हक़ मगर इस का पूछना क्या तिरे हिज्र का ज़माना बना जिस तरह गुज़ारा मैं हरीफ़-ए-कशमकश हूँ है जगह मिरी तलातुम जिसे मौत की हो ख़्वाहिश वही ढूँड ले किनारा तिरे पूछने के सदक़े ग़म-ए-दिल का माजरा क्या तिरे लुत्फ़ ने जलाया तिरी बे-रुख़ी ने मारा मिरी आरज़ू और उन को कहीं ख़्वाब तो नहीं है ये कहाँ चमक रहा है मिरे बख़्त का सितारा है अजीब चीज़ 'साहिर' ये मुक़द्दर-ए-वफ़ा भी कि उसी को हम ने चाहा जो न हो सके हमारा