हर एक सम्त से उठता है अब धुआँ यारो बहार और मिरे गुलशन में अब कहाँ यारो हर एक फूल महकता था उस की ख़ुशबू से बहार थी कभी हम पर भी मेहरबाँ यारो मैं चाहता था कि कुछ अपने जी की बात करूँ चले गए हैं कहाँ मेरे राज़-दाँ यारो मिरी निगाह में अब्र-ए-करम तो थे 'शाहिद' सुलग रहा है मगर मेरा आसमाँ यारो अब अपनी पलकों से काँटे हटाने पड़ते हैं थे रास्ते कभी मेरे भी गुल-फ़िशाँ यारो मैं दिल की बात किसी से भी कर नहीं पाया मुझे मिला ही नहीं कोई हम-ज़बाँ यारो कुछ अपनी करनी का ही पा रहे हैं फल 'शाहिद' रहे हैं हम को भी क्या जाने क्या गुमाँ यारो