हर एक शख़्स से क़ाएम दुआ सलाम रहे जहाँ में फ़ैज़-ए-मोहब्बत हमेशा आम रहे यहाँ जो आदमी अपना मक़ाम पहचाने तो ख़ुद ही उस की तमन्ना में हर मक़ाम रहे किसी ग़रीब से पूछो कि ज़िंदगी क्या है न सुब्ह सुब्ह के जैसी न शाम शाम रहे जुदा जुदा हैं यहाँ सब का इंतिख़ाब-ए-नज़र अज़ीज़ साक़ी किसी को किसी को जाम रहे हुदूद-ए-दैर-ओ-हरम से निकल गए आगे जो लोग तेरे तजस्सुस में तेज़ गाम रहे किसी के सामने जल्वा-नुमाई है उस की 'सुमन' किसी को बस इतना कि हम-कलाम रहे