हर इक सूरत में तुझ को जानते हैं हम इस बहरूप को पहचानते हैं है क़ादिर तो ख़ुदा लेकिन बुताँ भी वो कर चुकते हैं जो कुछ ठानते हैं तू नासेह मान या मत मान लेकिन तिरी बातें कोई हम जानते हैं गए गौहर के ताजिर जिस तरफ़ से हम उन रस्तों की माटी छानते हैं न सँभला आसमाँ से इश्क़ का बोझ हमीं हैं जो ये मग्दर भान्ते हैं मुरीद-ए-ख़ानदान-ए-इश्क़ जो है हम अपना पीर उसे गर्दानते हैं कली मारें हैं दो रकअत पे ज़ाहिद न डंड पेलें न मग्दर भान्ते हैं बहुत जागे हम उस महफ़िल में 'क़ाएम' कोई दम अब तो चादर तान्ते हैं