मिसाल-ए-संग पड़ा कब तक इंतिज़ार करूँ पिघलने में जो रवानी है इख़्तियार करूँ ख़बर नहीं वहाँ तू कौन से लिबास में हो मैं कैसे आलम-ए-पिन्हाँ को आश्कार करूँ ब-रंग-ए-मौजा-ए-ख़ुशबू उड़ा उड़ा फिरे तू मैं अपने क़ुर्ब से क्यूँ तुझ को ज़ेर-ए-बार करूँ मैं देखता हूँ उसे कैसे कैसे रंगों में कशीद-ए-रंग करूँ और बार बार करूँ वो एक बार भी मुझ से नज़र मिलाए अगर तो मैं उसे भी कोई मेहरबाँ शुमार करूँ जो तू गया है तो मैं भी चला गया गोया और अब भी दश्त-ए-तहय्युर में ख़ुद को ख़ार करूँ यूँही तो मैं 'ज़फ़र' इस हाल को नहीं पहुँचा फ़रेब दे जो मुझे उस पे ए'तिबार करूँ