हर एक ज़ीस्त का लम्हा भले निहाल न हो कोई तो दूर हो ऐसा कि जो मुहाल न हो दुआ ये कर न कोई ज़िंदगी में ऐसा मिले जो हम-सफ़र तो रहे और हम-ख़याल न हो ले इतना रख़्त-ए-सफ़र कि सफ़र भी कट जाए और इस का बोझ तिरे वास्ते वबाल न हो सफ़र में इतनी ही रफ़्तार रख कि आख़िर-कार पहुँच के तू सर-ए-मंज़िल कहीं निढाल न हो अमल वो कर कि नदामत न जिस पे हो तुझ को वो बात कह कि तुझे बा'द में मलाल न हो ख़ुदा मक़ाम अगर दे तो बस वो इतना ही कि जिस के बा'द मुक़द्दर में फिर ज़वाल न हो