हर ग़ज़ल हर शेर अपना इस्तिआरा-आश्ना फ़स्ल-ए-गुल में जैसे शाख़-ए-गुल शरारा-आश्ना ख़ून थूका दिल जलाया नक़्द-ए-जाँ क़ुर्बान की शहर-ए-फ़न में मैं रहा कितना ख़सारा-आश्ना कह गया अपनी नज़र से अन-कहे क़िस्से भी वो बज़्म-ए-हर्फ़-ओ-सौत में जो था इशारा-आश्ना अपने टूटे शहपरों के नौहागर तो थे बहुत दश्त-ए-फ़न में था न कोई संग-ए-ख़ारा-आश्ना उम्र भर बिफरी हुई मौजों से जो लड़ता रहा वो समुंदर तो अज़ल से था किनारा-आश्ना