क्या दुआ-ए-फ़र्सूदा हर्फ़-ए-बे-असर माँगूँ तिश्नगी में जीने का अब कोई हुनर माँगूँ धूप धूप चल कर भी जब थके न हम-राही कैसे अपनी ख़ातिर मैं साया-ए-शजर माँगूँ आइना-नवाज़ी से कुछ नहीं हुआ हासिल ख़ुद बने जो आईना अब वही हुनर माँगूँ इक तरफ़ तअ'स्सुब है इक तरफ़ रिया-कारी ऐसी बे-पनाही में क्या सुकूँ का घर माँगूँ मेरी ज़िंदगी में जो बट न जाए ख़ानों में मिल सके तो मैं ऐसा कोई बाम-ओ-दर माँगूँ लम्हा लम्हा तेज़ी से अब ज़मीं खिसकती है ख़ुद सफ़र का आलम है क्या कोई सफ़र माँगूँ बे-तलब ही देता है जब 'ज़हीर' वो सब कुछ किस लिए मैं फिर उस से जिंस-ए-मो'तबर माँगूँ