हर घड़ी एक ही जैसा कभी सोचा न करो वक़्त हरजाई है तुम इस पे भरोसा न करो वो तो बादल है कहीं जा के बरस जाएगा इस क़दर टूट के उस शख़्स को चाहा न करो ये भी मुमकिन है कि तुम हाथ जला लो अपना मेरी माज़ी की कभी राख कुरेदा न करो लाख अपने हों किसी पल भी बदल जाएँगे रेत के महल पे इतना भी भरोसा न करो चंद किरनें ही तिरे वास्ते काफ़ी हैं 'नसीम' ख़ाक हो जाओगे सूरज की तमन्ना न करो