हर घने साए को बेनाम-ओ-निशाँ करता हुआ वक़्त गुज़रा ख़्वाब मेरे राएगाँ करता हुआ कौन आता है मिरी रातों को करने मो'तबर कौन जाता है मिरी शमएँ धुआँ करता हुआ उस ने हँसते खेलते फाँदी है दीवार-ए-यक़ीं मैं कि ख़ुद को फिर रहा हूँ ख़ुश-गुमाँ करता हुआ क्या बताऊँ किस तरह पेश आई मुझ से ज़िंदगी सो न जाऊँ मैं यही क़िस्सा बयाँ करता हुआ मेरी बस्ती से है गुज़रा एक लश्कर इस तरह दूध पीते बच्चों को मश्क़-ए-सिनाँ करता हुआ सह रहा हूँ देर से ला-समतियत का इक अज़ाब कट गया अपनों से ख़ुद को आसमाँ करता हुआ खो गए गाढ़े धुएँ में शहर के मंज़र तमाम इक परिंदा रह गया आह-ओ-फ़ुग़ाँ करता हुआ किस ने रक्खी है मिरी आँखों में ख़्वाबों की क़तार कौन ख़्वाहिश दिल की जाता है जवाँ करता हुआ