हर घर के मकीनों ने ही दर खोले हुए थे सामान बँधा रक्खा था पर खोले हुए थे क्या करते जो दो चार क़दम था लब-ए-दरिया जब हौसले ही रख़्त-ए-सफ़र खोले हुए थे इक उस के बिछड़ने का क़लक़ सब को हुआ था सरसब्ज़ दरख़्तों ने भी सर खोले हुए थे सच्चाई की ख़ुशबू की रमक़ तक न थी उन में वो लोग जो बाज़ार-ए-हुनर खोले हुए थे पहुँचा था हक़ीक़त को कोई एक ही 'अंजुम' आँखें तो कई अहल-ए-नज़र खोले हुए थे