हर ग़ज़ल ख़्वाब की सूरत में ढली लगती है तेरे एहसास में भी जादूगरी लगती है मुद्दतों बाद ये सावन को भला क्या सूझी मेरी आँखों में तो हर रोज़ झड़ी लगती है इश्क़ में हो गई दीवानों सी हालत मेरी मौत हर-वक़्त मिरे सर पे खड़ी लगती है हुस्न-ए-ता'बीर मिरी आँख में उतरा कैसे तू कोई हूर है या कोई परी लगती है धड़कनें रक़्स में ज़ंजीर-ज़नी करती हैं अब कि जज़्बात में शोरीदा-सरी लगती है भर दिया मैं ने तग़ज़्ज़ुल में सभी रंगों को तेरी तस्वीर निगाहों में बसी लगती है बज रही है कोई पाज़ेब फ़ज़ा में शायद चाँद तारों पे कोई शोख़ चढ़ी लगती है दिल है इक दश्त की मानिंद तुम्हारा 'उश्बा' तभी क़िस्मत में सदा तिश्ना-लबी लगती है