हर गोशा-ए-नज़र में समाए हुए हो तुम जैसे कि मिरे सामने आए हुए हो तुम मेरी निगाह-ए-शौक़ पे छाए हुए हो तुम जल्वों को ख़ुद हिजाब बनाए हुए हो तुम क्यूँ इक तरफ़ निगाह जमाए हुए हो तुम क्या राज़ है जो मुझ से छुपाए हुए हो तुम दिल ने तुम्हारे हुस्न को बख़्शी हैं रिफ़अतें दिल को मगर नज़र से गिराए हुए हो तुम ये जो नियाज़-ए-इश्क़ का एहसास है तुम्हें शायद किसी के नाज़ उठाए हुए हो तुम या मेहरबानियों के ही क़ाबिल नहीं हूँ मैं या वाक़ई किसी के सिखाए हुए हो तुम अब इम्तियाज़-ए-पर्दा-ओ-जल्वा नहीं मुझे चेहरे से क्यूँ नक़ाब उठाए हुए हो तुम उफ़ रे सितम 'शकील' ये हालत तो हो गई अब भी करम की आस लगाए हुए हो तुम