हर हक़ीक़त है वही ख़्वाब-ए-परेशाँ कि जो था जज़्बा-ए-दिल है वही चाक-गरेबाँ कि जो था मह जबीनों को मिले जोर के अंदाज़ नए दिल-फ़िगारों को वही दीदा-ए-हैराँ कि जो था हाँ शहीदान-ए-वफ़ा सर पे कफ़न कज ही रहे देखना आज भी ज़ालिम है पशेमाँ कि जो था न मसीहा न ही मंसूर न फ़रहाद रहा अब कहाँ रौनक़-ओ-हंगामा-ए-याराँ कि जो था इक तरफ़ ऊँची इमारात हैं ज़िंदाँ ज़िंदाँ इक तरफ़ घर है मिरा दश्त-ओ-बयाबाँ कि जो था