हर हुक्मरान आ के ब-सद-नाज़-ओ-इफ़्तिख़ार सच्ची ज़मीं पे खींचता है झूट का हिसार मुंसिफ़ के भी गले में है इक तौक़-ए-फ़र्द-ए-जुर्म इंसाफ़ किस से माँगते हम से गुनाहगार आलिम की गुफ़्तुगू से भी आती है बू-ए-ख़ूँ सौदा ने अपने शे'रों में लिक्खा है बार-बार हर मदरसे में दर्स-ए-शहादत है सुर्ख़-रू दर्स-ए-हयात सारे हुए नज़्र-ए-इंतिशार