हर इक लम्हा मुझे ठहरा हुआ महसूस होता है मुझे सारा जहाँ इक रतजगा महसूस होता है सुनाई कुछ नहीं देता दिखाई कुछ नहीं देता मगर चारों तरफ़ इक जमघटा महसूस होता है तिरा ही नाम लेता हूँ तो फिर मुझ को वजूद अपना हवाओं पर लिखा हर्फ़-ए-दुआ महसूस होता है मिरी पलकों पे शबनम गिर रही है नींद की लेकिन मुझे हर एक साया जागता महसूस होता है हज़ारों साल पहले की शनासाई नहीं भूला मुझे हर आदमी देखा हुआ महसूस होता है मुझे अपना ही क़द लगता है क्यूँ ऊँचा पहाड़ों से मुझे अपना ये साया क्यूँ बड़ा महसूस होता है न जाने कौन सी मंज़िल पे आ ठहरा हूँ मैं 'अंजुम' जहाँ हर एक सन्नाटा सदा महसूस होता है