हर कमंद-ए-हवस से बाहर है By Ghazal << आशियाना मिरा बर्बाद न कर ... आइना प्यार का इक अक्स तिर... >> हर कमंद-ए-हवस से बाहर है ताइर-ए-जाँ क़फ़स से बाहर है मौत का एक दिन मुअय्यन है ज़िंदगी दस्तरस से बाहर है क़ाफ़िले में हम उस मक़ाम पे हैं जो सदा-ए-जरस से बाहर है कोई शय घर की ख़ुश नहीं आती वो बरस दो बरस से बाहर है Share on: