हर कोई हस्ब-ए-तौफ़ीक़ सहरा का मंज़र बनाता रहा मैं भी वहशत के नक़्शे को कमरे के अंदर बनाता रहा जब तलक मेरे तलवों पे इक बे-नियाज़ी की कालक रही संग-रेज़ों पे एड़ी रगड़ कर मैं गौहर बनाता रहा उस की सुंदर लवें बालियों के लिए झिलमिलाती रहीं मैं क़लम की सियाही से जिस के लिए ज़र बनाता रहा ताज-पोशी को पहले सुनहरी परिंदे इकट्ठे किए बाद में सर-बुरीदा शजर के लिए सर बनाता रहा रात-भर जैसे लुटने के इम्कान का ढोल पीटा गया कोई सीटी बजा कर हमारे लिए डर बनाता रहा जिस क़दम की धमक से सितारों के फ़ानूस जलते रहे उस क़दम का निशाँ चूम कर मैं भी मंज़र बनाता रहा रात भीगी तो भीगी हुई आँख से 'मीर' पढ़ते हुए कोई मेरी कमी को सलीक़े से बेहतर बनाता रहा