हर कोई सोच में है कैसे निकाले मुझ को पस्तियों से कोई नेज़े पे उठा ले मुझ को कितनी सदियों से डराते हैं उजाले मुझ को अपने दामन में कोई रात छुपा ले मुझ को उस से साहिल पे तड़पना मिरा देखा न गया मौज इक कर गई तूफ़ाँ के हवाले मुझ को चंद क़तरों से बुझेगी न हवस काँटों की लिए फिरते हैं 'अबस पाँव के छाले मुझ को मैं तो बहता हुआ पानी हूँ न हाथ आऊँगा लाख साहिल से तू आईना बना ले मुझ को वो शनावर है तो क्यों मुझ से चुराता है नज़र मैं समंदर हूँ किसी रोज़ खंगाले मुझ को ज़ह्न में हूँ मैं ख़यालों का दफ़ीना 'शाहिद' मुंतज़िर हूँ कोई अल्फ़ाज़ में पा ले मुझ को