हर लफ़्ज़ है नविश्ता-ए-दीवार की तरह सच बोलता है वो मिरे अशआ'र की तरह माँ है अज़ीम नूर के मीनार की तरह ग़ुस्सा तू कर रही है मगर प्यार की तरह गर सोचिए मुहाजिर-ओ-अंसार की तरह जज़्बा नहीं है जज़्बा-ए-ईसार की तरह दुनिया से पेश आइए बेज़ार की तरह पीछे फिरा करेगी तलबगार की तरह ख़ुश्बू-ए-दोस्ताँ तो हवा पर सवार है चलना पड़ेगा वक़्त की रफ़्तार की तरह रिश्ते हुए मफ़ाद परस्ती में मुब्तला घर हो गया है कूचा-ए-बाज़ार की तरह कासा है इस अमीर की क़िस्मत में ऐ 'ख़लिश' झुकता नहीं जो शाख़-ए-समर-दार की तरह