भले ही हस्त से नाबूद होता ज़ियाँ मेरा किसी का सूद होता मैं जिस की आरज़ू में मर रहा हूँ तसव्वुर में तो वो मौजूद होता जमी है मस्लहत की बर्फ़ वर्ना हमारा हौसला बारूद होता हवस क्यूँकर तुम्हें बेचैन करती सुकून-ए-दिल अगर मक़्सूद होता जो हम करते न अज़्म-ए-हक़-नवाई अमीर-ए-शहर क्यों नमरूद होता हसद का तेल है तेरे दिए में उजाला तो न होता दूद होता तिलिस्म आबाद है शहर-ए-तख़य्युल जिसे मैं सोचता मशहूद होता 'ख़लिश' मस्लक है आफ़ाक़ी हमारा किसी सरहद में क्यों महदूद होता